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सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना

August 30, 2018

सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना

राजस्थान में दिसम्बर 2013 तक कृषि कनेक्शन हेतु लम्बित 3 व 5 एच.पी. के लगभग 70 हजार आवेदकों के कृषि पम्प सेटों को सौर ऊर्जा से ऊर्जीकृत करने एवं ग्रीन ऊर्जा को प्रोत्साहित करने हेतु सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना आरम्भ की गई है।

सोलर पम्प कृषि कनेक्शन योजना में सौर ऊर्जा पम्प कनेक्शन उन कृषि कनेक्शन आवेदकों को देय होगा जो विद्युत वितरण निगमों की सामान्य कृषि श्रेणी में 3 एच.पी. व 5 एच.पी. के लिए 1 मार्च 2010 से 31 दिसम्बर 2013 तक पंजीकृत है।
  • प्रथम चरण में 10,000 सोलर पम्प स्थापित किये जायेंगे।
  • योजना में पंजीकरण हेतु सामान्य कृषि कनेक्शन आवेदक विद्युत निगम के सम्बन्धित सहायक अभियन्ता (पवस) कार्यालय में रूपये 1000/- जमा कराकर आवेदन कर सकेगें।
  • योजना में सरकार द्वारा 60 प्रतिशत राशि वहन की जावेगी एवं शेष 40 प्रतिशत राशि आवेदक द्वारा देय होगी।
  • आवेदक की निगम में निर्धारित मूल वरीयता अनुसार ही सौर ऊर्जा पम्प सेट स्थापित किये जावेंगे।
  • सौर ऊर्जा पम्प सेटों का 7 वर्ष तक निःशुल्क बीमा आपूर्तिकर्ता/निर्माता कंपनी द्वारा किया जावेगा।

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें - http://www.jaipurdiscom.com
प्रेस नोट के लिए क्लिक करें - http://bit.ly/2t7cuKs
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RAJASTHAN STATE GAS LIMITED - राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड

August 07, 2018

RAJASTHAN STATE GAS LIMITED - राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड

खुदरा गैस के बुनियादी ढांचे को स्थापित करने तथा घरेलू, मोटर वाहन, वाणिज्यिक और औद्योगिक ग्राहकों के लिए स्वछ्तर ईंधन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए राज्य में एक नोडल एजेंसी के रूप में 'गेल गैस लिमिटेड' (महारत्न कंपनी गेल (इंडिया) लिमिटेड की सहायक कंपनी) और 'राजस्थान राज्य पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड' (राजस्थान राज्य खान और खनिज लिमिटेड- आर.एस.एम.एम.एल. की एक सहायक कम्पनी) द्वारा 20 सितंबर 2013 को 'एक ''RSPCL-GAIL GAS LIMITED'' नामक संयुक्त उद्यम कंपनी' को स्थापित किया गया था।
राजस्थान में खुदरा गैस के बुनियादी ढांचे को विकसित करने के लिए माननीय मुख्यमंत्री की उपस्थिति में 28/10/2014 को आरआईआईसीओ (राजस्थान राज्य औद्योगिक विकास एवं निवेश निगम) के साथ उक्त संयुक्त उद्यम कंपनी द्वारा समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर करने के बाद, यह कंपनी ''आरएसपीसीएल-गेल गैस लिमिटेड'' से ''राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड (आरएसजीएल)'' में परिवर्तित हो गई। राजस्थान में खुदरा गैस के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए कंपनी के रणनीतिक कदम के अनुरूप कंपनी का यह नाम एक नोडल प्लेयर के रूप में है।
वर्तमान में गेल गैस द्वारा 'राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड- आरएसजीएल' को अधिकृत गैस वितरण का अधिकार हस्तानान्तरित किया जा रहा है, जिससे यह कंपनी गैस वितरण व्यवसाय में वाणिज्यिक गतिविधियों को शुरू करने का मार्ग प्रशस्त करेगी।
आरएसजीएल चरणबद्ध तरीके से नेटवर्क विकसित करेगी, जो निम्न है : -

प्रथम चरण : -

इसमें एक ''मेगा सीएनजी मातृ स्टेशन (Mega CNG Mother Station)'' नीमराना में स्थापित किया जाएगा और जयपुर के पास कुकस में एक ''पुत्री बूस्टर स्टेशन (Daughter Booster Station)'' होगा, जिससे दिल्ली-जयपुर राजमार्ग एनएच-8 के पर सीएनजी गलियारा खोला जा सकेगा तथा अलवर एवं कुकस के आसपास के औद्योगिक ग्राहकों की गैस आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकेगी। आगे यह कंपनी बारां, झालावाड़ और घिलोट के औद्योगिक समूहों को कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए पूर्व परियोजना गतिविधियों को ले रही है। जयपुर के लिए योजनाबद्ध पाइपलाइन कनेक्टिविटी करने के बाद ऑनलाइन सीएनजी सुविधा प्रदान करने के लिए कुकस में स्थापित 'पुत्री बूस्टर स्टेशन' को डिज़ाइन किया गया है।

द्वितीय चरण : -

द्वितीय चरण में 'राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड- आरएसजीएल' कम्पनी जयपुर-अजमेर राजमार्ग, जयपुर-कोटा राजमार्ग, जयपुर-सीकर राजमार्ग और कोटा-उदयपुर राजमार्ग पर सीएनजी कॉरिडोर स्थापित करने के साथ-साथ जयपुर, अजमेर, सीकर और उदयपुर शहरों में सीएनजी नेटवर्क विकसित करने की योजना बना रहा है।

तृतीय चरण : -

तृतीय चरण में 'राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड- आरएसजीएल' कम्पनी ने दूरदराज उन जिलों, जो पाइप लाइन कनेक्टिविटी द्वारा कवर नहीं हैं, के लिए दाहेज से एलएनजी आयात करके प्राकृतिक गैस की जरूरतों को पूरा करने की योजना बनाई है, ।

स्वच्छ ऊर्जा समाधान के लिए नोडल प्लेयर के रूप में आरएसजीएल राज्य के आर्थिक विकास में योगदान देगा और गैस आधारित नेटवर्क विकसित करके राजकोष को राजस्व प्रदान करेगा।

कम्पनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स-

1. सुश्री अपर्णा अरोरा, आईएएस (सचिव, खान एवं पेट्रोलियम, राजस्थान सरकार) - चेयरमेन  
2. श्री प्रवीण गुप्ता, आईएएस (वित्त सचिव) - डायरेक्टर
3. श्री पी.के. पाल, (सीईओ, गेल गैस) - डायरेक्टर
4. श्री रवि अग्रवाल, मेनेजिंग डायरेक्टर

पता व ईमेल-

राजस्थान राज्य गैस लिमिटेड
खनिज भवन, तिलक मार्ग, सी-स्कीम,
जयपुर-302005

फोन: 0141-2227148,4082010-11, फैक्स: 0141-4082012
ईमेल:- mdcellrsgl@gmail.com

RAJASTHAN STATE GAS LIMITED -

A Joint Venture Company was incorporated on 20th September 2013 by GAIL Gas Limited (A subsidiary of Maharatna Company GAIL (India) Ltd.) & Rajasthan State Petroleum Corporation Limited ( A subsidiary of Rajasthan State Mines & Minerals Limited) to setup retail gas infrastructure in the state of Rajasthan as a Nodal player to cater requirement of cleaner fuel for Domestic, Automotive, Commercial and Industrial customers.

Subsequent to signing of the MoU by Joint Venture Company with RIICO (Rajasthan State Industrial Development and Investment Corporation) on 28/10/2014 in the presence of Hon’ble Chief Minister, for strategic tie-up to develop retail gas infrastructure in the state of Rajasthan, the company has moved ahead with the name change from RSPCL-GAIL GAS LIMITED to RAJASTHAN STATE GAS LIMITED (RSGL). The Company name is in line with Company`s Strategic move to become a Nodal Player for Development of Retail Gas Infrastructure in the state of Rajasthan.

The City Gas Distribution rights presently authorized to Gail gas is being transferred to RSGL shortly which will pave the way for Company to start commercial activities in gas distribution business. 

RSGL shall develop the network in a phased manner:- 

In Phase-I :-

A Mega CNG Mother Station would be set up at Neemrana and a Daughter Booster Station at Kukas near Jaipur thereby opening up the CNG corridor along Delhi-Jaipur Highway NH-8 and catering to the industrial customers in and around Alwar and Kukas. Further company is taking pre project activities for providing connectivity to the industrial clusters of Baran, Jhalawar and Ghilot. The Daughter Booster Station being setup at Kukas is designed for online CNG facility after planned pipeline connectivity to Jaipur.

In Phase–II:-

RSGL plans to develop CNG network in Jaipur, Ajmer, Sikar and Udaipur cities along the Jaipur-Ajmer Highway, Jaipur–Kota Highway, Jaipur-Sikar Highway and Kota- Udaipur Highway CNG Corridors.

In Phase–III:-

RSGL has plans to meet the needs of Natural Gas by importing LNG from Dahej for the distantly located districts which are not covered by pipe line connectivity.
RSGL as nodal player for clean energy solution will contribute in economic growth and provide revenue to the state exchequer by developing gas based network.

Board of Directors of Company-

1. Ms. Aparna Arora IAS, Secretary , Mines and Petroleum GoR & Chairman  
2. Sh. Praveen Gupta, IAS, Secretary Finance & Director
3. Sh. P.K.Pal, CEO Gail Gas & Director
4. Sh. Ravi Agarwal, Managing Director

Address and Email-

RAJASTHAN STATE GAS LIMITED
Khaniz Bhawan Tilak Marg, C-Scheme
Jaipur-302005
Phone: 0141-2227148,4082010-11 , Fax: 0141-4082012
E-Mail:- mdcellrsgl@gmail.com
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Haveli Sangeet and Ashtchhap Poet of Pushtimarg-पुष्टिमार्ग का हवेली संगीत और अष्टछाप कवि

July 29, 2018
संगीत मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग हो गया है। मनुष्य, प्रकृति, पशु-पक्षी सभी मिलकर एकतान संगीत की सृष्टि करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि समस्त ब्रह्माण्ड ही एक सुन्दर संगीत की रचना कर रहा है। वैसे तो जो भी ऐसा गाया या बजाया जाए जो कर्णप्रिय हो संगीत ही होगा किन्तु कुछ निश्चित नियमों में बँधे हुए संगीत को शास्त्रीय संगीत कहा जाता है। शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत अथवा सरल संगीत आदि जो कुछ आज हमें सुनने को मिल रहा है उसका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में परम्परागत शास्त्रों के विचारों के साथ-साथ 15वीं, 16वीं, 17वीं शताब्दी के मध्यकालीन भक्ति संगीत से अवश्य प्रभावित है।
मध्यकालीन संगीत में अष्टछाप या हवेली संगीत की स्थापना, पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य श्री वल्लभाचार्य के पुत्र आचार्य गोस्वामी श्री विट्ठलनाथजी ने श्रीनाथ जी की सेवा करने एवं  पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार करने के लिए की थी। 'अष्टछाप' कृष्ण काव्य धारा के आठ कवियों के समूह को कहते हैं, जिनका मूल सम्बन्ध आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय से है। जिन आठ कवियों को अष्टछाप कहा जाता है, वे हैं -

1. कुम्भनदास,           2. सूरदास,          3. परमानन्ददास,            4.   कृष्णदास, 

5. गोविन्दस्वामी,       6. नन्ददास,       7. छीतस्वामी और            8.  चतुर्भुजदास। 

इनमें  उपर्युक्त चार  कवि  संगीतज्ञ वल्लभाचार्य जी तथा शेष चार  गोस्वामी विट्ठलनाथ  जी  के  शिष्य  माने  गये  हैं। उपर्युक्त सभी अष्टछाप कवियों को विट्ठलनाथ जी ने श्रीनाथ मंदिर की अष्टयाम सेवा के लिये नियुक्त किया था।श्रीनाथजी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित ये सभी भक्त आशुकवि होने के साथ-साथ संगीत के मर्मज्ञ भी थे।
द्वारिकेश जी रचित श्री गोवर्धनदास जी की प्राकट्यवार्ता में उल्लेखित छप्पय में अष्टछाप के संदर्भ में व्याख्या मिलती है-
‘सूरदास सो तो कृष्ण तोक परमानन्द जानो।
कृष्णदास सो ऋषभ, छीत स्वामी सुबल बखानो।
अर्जुन कुंभनदास चतुर्भुजदास विशाला।
विष्णुदास सो भोजस्वामी गोविन्द श्री माला।
अष्टछाप आठो सखा श्री द्वारकेश परमान।
जिनके कृत गुणगान करि निज जन होत सुजान।’


 

 वल्लभाचार्य ने शंकर के अद्वैतवाद एवं मायावाद का खण्डन करते हुए भगवान कृष्ण के सगुण रूप की स्थापना की और उनकी भावनापूर्ण भक्ति के लिए भगवान श्रीनाथ जी का मन्दिर बनवाकर पुष्टिमार्गीय भक्ति को स्थापित किया। वस्तुतः विट्ठलनाथ जी ने ही भगवान श्रीनाथजी की अष्टयाम सेवा  एवं ‘अष्ट श्रृंगार’ की परम्परा शुरु की थीा।  इस अष्टयाम सेवा को आठ भागों में विभक्त किया जाता है -

(1) मंगला               (2) शृंगार              (3) ग्वाल                                  (4) राजभोग 

(5) उत्थापन            (6) भोग                (7) सन्ध्या आरती और             (8) शयन। 

अष्टयाम सेवा प्रभु श्रीनाथजी की नित्य की जाने वाली सेवा है। अष्टछाप के इन आठों कवि संगीतज्ञों का कार्य उन अष्टयाम के आठों समयों में उपस्थित रहकर कृष्ण भक्ति के गीत प्रस्तुत करना था। अष्टछाप के संगीतज्ञ कवियों ने ‘अष्ट श्रृंगार’ अथवा ‘अष्टयाम सेवा’ के माध्यम से विभिन्न पदों की रचना की, जो अनेक रागों और तालों में गाए जाते हैं। अष्टयाम सेवा भगवान श्रीनाथ जी की सेवा का एक दैनिक क्रम है जो प्रातःकाल से ही प्रारंभ होकर संध्या तक चलता है। श्रीनाथजी के मंदिर में विभिन्न अवसरों, त्यौहारों एवं तिथियों पर प्रभु श्रीनाथजी की विशेष सेवा एवं श्रृंगार से युक्त विभिन्न उत्सवों का आयोजन किया जाता है। वर्ष भर में विशेष दिवसों पर इन उत्सवों का आयोजन होता है, इसीलिए इन्हें वर्षोत्सव सेवा कहते हैं। इसमें षट्-ऋतुओं के उत्सव, अवतारों की जयन्तियाँ, अलग-अलग त्यौहार, तिथियाँ तथा पुष्टिमार्ग के आचार्यों एवं उनके वंशजों के जन्मोत्सव सम्मिलित होते हैं। पुष्टिमार्गीय पूजा पद्धति में इस वर्षोत्सव सेवा को विशेष महत्त्व दिया जाता है। वर्षोत्सव सेवा के अन्तर्गत दैनिक सेवा (नित्य सेवा) के अतिरिक्त विशेष रूप से श्रृंगार, राग तथा भोगों की व्यवस्था होती है।
पुष्टिमार्ग में प्रभु श्रीनाथजी की सेवा श्रृंगार, भोग और राग के माध्यम से की जाती है। पुष्टिप्रभु संगीत की स्वर लहरियों में जागते हैं। उन्ही स्वर लहरियों के साथ श्रृंगार धारण करते हैं और भोग आरोगते हैं। वे संगीत के स्वरों में ही गायों को टेरते और व्रजांगनाओं को आमंत्रित करते हैं तथा रात्रि में मधुर संगीत का आनन्द लेते ही शयन करते हैं। पुष्टिमार्ग में ऋतुओं में क्रम से वस्त्रों एवं अलंकारों का चयन किया जाता है तथा भोग में किस दिन किस झाँकी में कौन सा भोग कितनी मात्रा में होना चाहिए, इसका भी एक निश्चित विधान है।  इसी प्रकार पुष्टिमार्गीय मंदिरों में ऋतु एवं काल के अनुरूप राग-रागिनियों का निर्धारण किया जाता है तथा तदनुरूप भगवद्भक्तिपूर्ण पदों का गायन (कीर्तन) किया जाता है। इस कीर्तन में परम्परागत वाद्य यंत्रों के द्वारा संगत होती है।
कीर्तनिया या कीर्तनकार- पुष्टिमार्ग ने संगीत के क्षेत्र में सैकडो संगीतकार प्रदान किए है। श्रीनाथजी हवेली में की जाने वाली गायन-क्रिया को कीर्तन कहा जाता है और कीर्तनकार गायक को कीर्तनिया कहा जाता है। इस प्रकार पुष्टिमार्गीय पूजा परंपरा में कीर्तन का विशेष महत्त्व है। यदि परम्परा में कीर्तनियाँ न हो तो सेवा पूरी नहीं समझी जाती है। पुष्टिमार्ग में अष्टछाप के पदों से युक्त कीर्तन अन्य मदिरों में होने वाले मंत्रोच्चारण के समान महत्व रखते हैं। अन्य सम्प्रदायों के मन्दिरों में सेवा अथवा पूजा का क्रम मन्त्रोच्चारण से पूर्ण होता है, लेकिन पुष्टिमार्ग में मन्त्रोच्चारण के स्थान पर कीर्तन ही किया जाता है। इस कीर्तन में कीर्तनिये अष्टछाप कवियों द्वारा रचित पद गाते हैं। अष्टछाप संगीत की गायन की विधि शुद्ध शास्त्रीयता पर आधारित होती है। इसमें रागों की सुनियोजित योजना होती है। इसमें नित्य-सेवा क्रम से कीर्तन की अपनी अलग प्रणालिकाएं हैं। जैसे- नित्य क्रम में राग भैरव, देवगंधार आदि से प्रारम्भ करके बिलावल, टोड़ी व आसावरी आदि (सर्दियों में) रागों से गुजरते हुए संध्या को पूर्वी व कल्याणादि तक पहुँचते हैं तथा उसके पश्चात् अन्य रागों के व्यवहार के साथ-साथ अन्त में शयन कराने के लिए आवश्यक रूप से बिहाग राग का प्रयोग होता है।
वर्तमान शास्त्रीय संगीत में तीन ताल का प्रयोग सर्वाधिक होता है। उसी प्रकार ब्रज अथवा मथुरा के अष्टछाप संगीत में धमार ताल का सर्वाधिक प्रयुक्त होता है, जबकि नाथद्वारा में आडाचारताल का प्रयोग अधिक होता है। वहाँ पर थोड़ा द्रुत लय में इस ताल का प्रयोग होता है। गायन की ध्रुपद धमार शैली और रास-नृत्य शैली ने अष्टछाप संगीत को अमरता प्रदान किया।

चतुर्भुजदास कृत ‘षट् ऋतु वार्ता’ में 36 वाद्यों का उल्लेख मिलता है, जिनका पुष्टिमार्गीय अथवा अष्टछाप के मन्दिरों में प्रयोग होता था। उनमें से तानपूरा (तंबूरा), वीणा, पिनाक, मृदंग अथवा पखावज, सारंगी, रबाब, जंत्र, बाँसुरी, मुरज, दुंदुभि, भेरि, शहनाई, ढोल, खंजरी, झाँझ, मंजीरा, महुवरि, तुरही, शृंगी, शंख,  मुख्य वाद्य यन्त्र हैं।
अष्टछाप संगीत को क्यों कहते हैं हवेली संगीत- 
मथुरा, नाथद्वारा, मथुरा के निकट स्थित गोवर्धन पर्वत, कांकरोली (द्वारकाधीश जी), कामा, कोटा आदि पुष्टिमार्गीय भक्ति साधना के प्रमुख स्थल हैं। मुगल बादशाह औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता की मानसिकता के कारण संवत् 1720 वि0 में श्रीनाथजी के स्वरूप को राजस्थान के नाथद्वारा में ले जाया गया था। मन्दिरों और मूर्तियों को बचाने के लिए मूर्तियों को मन्दिरों से हटाकर हवेलियों में सुरक्षित रखा गया तथा वहाँ पर उसी विधान से श्रीनाथजी की सेवा की जाने लगी। कालान्तर में इन हवेलियों में विग्रह स्थापना और अष्टयाम सेवा के होने के कारण अष्टछाप संगीत को हवेली संगीत भी कहा जाने लगा। अष्टछाप कवि संगीतज्ञों ने भगवान कृष्ण के लोकरंजक स्वरूप व माधुर्य से पूर्ण लीलाओं का चित्रण किया है। वात्सल्य और श्रृंगार का ऐसा अद्भुत वर्णन किसी और साहित्य में नहीं प्राप्त होता है। प्रेम की स्वाभाविकता और प्रेम की विशदता के दर्शन इस भक्ति काव्य में प्राप्त होते हैं। इनमें की गई कृष्ण-लीलाओं का वर्णन भक्तों को रस व आनन्द प्रदान करता है। मध्यकाल के जब महिलाओं का घर से निकलना अवरुद्ध था, तब इन कृष्ण भक्त अष्टछाप कवि संगीतज्ञों ने अपने काव्य व संगीत के माध्यम से नारी मुक्ति की प्रस्तावना लिख दी थी। कृष्ण काव्य धारा के इन कवि-संगीतज्ञों ने गोपियों के माध्यम से नारियों को प्रतीकात्मक अर्थ में मुक्ति प्रदान की थी।
अष्टछाप काव्य गहन अनुभूतियों का काव्य है। इन कवियों की रचनाएँ प्रायः मुक्तक में हैं। हवेली संगीत की ब्रज-मधुरता विलक्षण है। ब्रज भाषा में रचित इन रचनाओं में अत्यंत माधुर्यपूर्ण संगीतमय काव्य है। इसी का परिणाम है कि बाद में आने वाले रीतिकाल में ब्रजभाषा एकमात्र काव्य भाषा बन गई थी। दोहा, कवित्त, सवैया आदि के प्रयोग द्वारा इन भक्त कवियों ने लयात्मकता और संगीतात्मकता के प्रति गहरा जुड़ाव बनाए रखा। इसी कारण इन कवि संगीतज्ञों ने प्रायः सभी पद किसी न किसी राग को आधार बनाकर रचे हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों तथा बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से अष्टछाप कवि संगीतज्ञों ने काव्य और संगीत को गहनता प्रदान की है।
Haveli Sangeet and Ashtchhap Poet of Pushtimarg-पुष्टिमार्ग का हवेली संगीत और अष्टछाप कवि Haveli Sangeet and Ashtchhap Poet of Pushtimarg-पुष्टिमार्ग का हवेली संगीत और अष्टछाप कवि Reviewed by asdfasdf on July 29, 2018 Rating: 5

Kathodi Tribe of Rajasthan - राजस्थान की कथौड़ी जनजाति

July 23, 2018

Kathodi Tribe of Rajasthan - राजस्थान की कथौड़ी जनजाति

  • राज्य की कुल कथौड़ी आबादी की लगभग 52 प्रतिशत कथौड़ी लोग उदयपुर जिले की कोटडा, झाडोल, एव सराडा, पंचायत समिति में बसे हुए है। शेष मुख्यतः डूंगरपुर, बारां एवं झालावाड़ में बसे है।
  • ये महाराष्ट्र के मूल निवासी है। खैर के पेड़ से कत्था बनाने में दक्ष होने के कारण वर्षो पूर्व उदयपुर के कत्था व्यवसायियों ने इन्हें यहाँ लाकर बसाया। कत्था तैयार करने में दक्ष होने के कारण ये कथौड़ी कहलाए गए। राजस्थान में 2011 की जनगणना के अनुसार कथौड़ी जनजाति की कुल आबादी मात्र 4833 है। ये Kathodi,  Katkari,   Dhor Kathodi,   Dhor Katkari,   Son Kathodi,   Son Katkari के अलग-अलग उपजातियों में पाए जाते हैं।
  • वर्तमान में वृक्षों की अंधाधुध कटाई व पर्यावरण की दृष्टि से राज्य सरकार द्वारा इस कार्य को प्रति बंधित घोषित कर दिए जाने कथौड़ी लोगों की आर्थिक स्थिति बडी शोचनीय एवं बदतर हो गयी है। आज य जनजाति समुदाय जगंल से लघु वन उपज जैसे बांस, महुआ, शहद, सफेद मूसली, डोलमा, गोंद, कोयला एकत्र कर और चोरी-छुपे लकड़ियाँ काटकर बेचने तक सीमित हो गया है।
  • राज्य की अन्य सभी जनजातियों की तुलना में इस जनजाति के लोगों का शैक्षिक एवं आर्थिक जीवन स्तर अत्यधिक निम्न है।

कथौड़ी जनजाति की प्रमुख विशेषताएं

  • कथौड़ी जंगलों व पहाड़ों में रहने वाली ऐसी जनजाति है, जो स्वभावतः अस्थाई एवं घुमन्तु जीवन जीती रही है।
  • खेर के जंगलों से कत्था तैयार करने के अलावा मछली पकड़ना, कृषि कार्य करना यह जनजाति अपना गुजर बसर करती है।
  • कथौड़ी लोग घास - पूस, पत्तों एवं बांसों से बने झोपडों, जिन्हे खोलरा कहते है, में रहते है।
  • इनके परिवार आत्म केन्द्रित होते है। व्यक्ति शादी होते ही अपने मूल परिवार से अलग हो जाता है। नाता करना, विवाह विच्छेद एवं विधवा विवाह प्रचलित है।
  • कथौड़ी मांसाहारी होते है। दैनिक खानपान में मक्का, ज्वार आदि की रोटी प्याज आदि के साथ खाते है। चावल उनको प्रिय है।  पेय पदार्थो में दूध का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता है।
  • ये शराब अधिक पीते हैं।
  • स्त्रियां मराठी अंदाज में साड़ी पहनती है, जिसे फड़का कहते है। इनमें गहने पहनने का कोई रिवाज नहीं है। इनमें शरीर पर गोदने का महत्व है।
  • कथौड़ी प्रकृति पर आश्रित जनजाति हैं। वे पुनर्जन्म को पूरी तरह मानते है।
  • कथौड़ी लोगों के प्रमुख परम्परागत देवता डूंगर देव, वाद्य देव, गाम देव, भारी माता, कन्सारी देवी आदि है। कथौड़ी देवताओं से ज्यादा देवी भक्ति में विश्वास रखते है।
  • कथौड़ी समाज में मुखिया को नायक कहते है।
  • इस जनजाति में मावलिया नृत्य एवं होली नृत्य प्रमुख है।
  • मावलिया नृत्य - इस नृत्य नवरात्रों में पुरूषों द्वारा किया जाता है। इसमें 10-12 पुरूष ढोलक, टापरा एवं बांसली की ताल पर गोल-गोल घूमते हुए नाचते हैं।
  • होली नृत्य - इसमें कथौडी स्त्रियां होली के अवसर पर एक दूसरे का हाथ पकडकर नृत्य करती है। नृत्य के दौरान पिरामिड भी बनाती है। पुरूष उनकी संगत में ढोलक, घोरिया, बांसली बजाते है।
  • कथौड़ी जनजाति के लोक वाद्य : इनके वाद्य यंत्रों में गोरिड़िया एवं थालीसर मुख्य है।
  • तारणी : लोकी के एक सिरे पर छेद कर बनाया जाने वाला वाद्य जो महाराष्ट्र के तारपा लोकवाद्य के समान है।
  • घोरिया या खोखरा : बांस से बना वाद्य यंत्र।
  • पावरी : तीन फीट लंबा बांस का बना वाद्य यंत्र जो ऊर्ध्व बाँसुरी जैसा वाद्ययंत्र है। इसे मृत्यु के समय बजाया जाता है।
  • टापरा : बांस से बना लगभग 2 फीट लम्बा वाद्य यंत्र।
  • थालीसर : पीतल की थाली के समान बनाया गया वाद्य यंत्र। इसे देवी देवताओं की स्तुति के समय या मृतक का अंतिम संस्कार के बाद बजाते हैं।
  • इनमें विवाह में प्रथा व विधवा पुनर्विवाह प्रचलित है। मृत्युभोज प्रथा भी प्रचलित है।
    Kathodi Tribe of Rajasthan - राजस्थान की कथौड़ी जनजाति Kathodi Tribe of Rajasthan - राजस्थान की कथौड़ी जनजाति Reviewed by asdfasdf on July 23, 2018 Rating: 5

    राजस्थान की सूक्ष्म एवं गर्म जलवायु में खजूर की खेती

    July 18, 2018

    केन्द्र सरकार एवं राजस्थान सरकार के प्रयासों और वैज्ञानिकों एवं कृषि विशेषज्ञों की मदद से राजस्थान के किसान पारंपरिक खेती के तरीकों के साथ-साथ आधुनिक कृषि के युग में प्रवेश कर रहे है। फलस्वरूप राजस्थान में जैतून, जोजोबा (होहोबा), खजूर जैसी वाणिज्यिक फसलें भी होने लगी है।

    राज्य की सूक्ष्म एवं गर्म जलवायु खजूर की खेती के लिए वरदान साबित हो रही है। राजस्थान का उद्यानिकी विभाग उत्तर-पश्चिमी राजस्थान के शुष्क रेगिस्तानी क्षेत्रों में खजूर की खेती को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दे रहा है। खजूर एक ऐसा पेड़ है जो विभिन्न प्रकार की जलवायु में अच्छी तरह से पनपता है। हालांकि, खजूर के फल को पूरी तरह से पकने और परिपक्व होने के दौरान लम्बे समय तक शुष्क गर्मी की आवश्यकता होती है। लम्बे समय तक बादल छाए रहने और हल्की बूंदाबादी इसकी फसल को अधिक नुकसान पहुंचाती है। 

    इसके फूल आने और फल के पकने के मध्य की समयावधि का औसत तापमान कम से कम एक महीने के लिए 21 डिग्री सेल्सियस से 27 डिग्री सेल्सियस अथवा इससे अधिक होना चाहिए। फल की सफलतापूर्वक परिपक्वता के लिए लगभग 3000 हीट यूनिटस की आवश्यक होती हैं। राजस्थान का मौसम इसके लिए उपयुक्त हैं।




    राजस्थान सरकार ने वर्ष 2007-2008 में राज्य में खजूर की खेती की परियोजना शुरू करने की पहल की थी। जैसलमेर के सरकारी खेतों और बीकानेर में मैकेनाइज्ड कृषि फार्म के कुल 135 हेक्टेयर क्षेत्रों पर खजूर की खेती शुरू की गई। इसमें से 97 हेक्टेयर क्षेत्र जैसलमेर में और 38 हेक्टेयर क्षेत्र बीकानेर में था। राज्य में वर्ष 2008-2009 में किसानों द्वारा खजूर की खेती शुरू की गई। खजूर की खेती के लिए राज्य के 12 जिलों जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, बीकानेर, हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर, नागौर, पाली, जालौर, झुंझुनूं, सिरोही और चुरू का चयन किया गया। 2007-2008 में सरकारी खेतों के लिए संयुक्त अरब अमीरात से 21,294 टिशू कल्चर से उगाये गये पौधे आयात किए गए। 2008 से 2011 की अवधि में किसानों की भूमि पर खेती हेतु ऐसे ही लगभग 1,32,000 पौधे तीन चरणों में संयुक्त अरब अमीरात और ब्रिटेन से आयात किए गए थे।

    वर्तमान में राज्य के किसानों द्वारा अब तक कुल 813 हेक्टेयर भूमि क्षेत्र पर खजूर की खेती की जा रही है। राज्य द्वारा वर्ष 2016-17 तक खजूर की खेती के लिए 150 हेक्टेयर से और अधिक भूमि को इसमें शामिल करने का लक्ष्य प्रस्तावित है। भारत-इजरायल के सहयोग से सागरा-भोजका फार्म पर खजूर पर अनुसंधान कार्य चल रहा है। डेट या डेट पाम (खजूर) के रूप में जाना जाने वाला फीनिक्स डाक्ट्यलीफेरा सामान्यतः पाम फेमिली के फूल वाले पौधे की प्रजातियां हैं। खाने योग्य मीठे फलों के कारण अरेकेसिये की खेती की जाती है।

    खजूर की बेहतरीन किस्म उगाने के लिए राज्य सरकार द्वारा 3 मार्च 2009 को जोधपुर में अतुल लिमिटेड के साथ मिलकर एक टिशू कल्चर प्रयोगशाला की शुरूआत की गई। अप्रैल, 2012 से इस प्रयोगशाला ने टिशू कल्चर खजूर की खेती करना शुरू किया गया। राज्य सरकार द्वारा इस प्रकार के करीब 25,000 पौधों के उगने की उम्मीद की जा रही है। वर्तमान में राजस्थान में खजूर की सात किस्मों यथा बारही, खुनेजी, खालास, मेडजूल, खाद्रावी, जामली एवं सगई की खेती की जा रही है। राज्य सरकार द्वारा टिशू कल्चर तकनीक पर खजूर की खेती करने वाले किसानों को वर्ष 2014-2015 में 90 प्रतिशत अनुदान दिया गया। इसी प्रकार 2015-2016 से किसानों को टिशू कल्चर के आधार पर 75 प्रतिशत अनुदान अथवा अधिकतम प्रति हेक्टेयर 3,12,450 रूपए की राशि दी जा रही है।
     


    राजस्थान की सूक्ष्म एवं गर्म जलवायु में खजूर की खेती राजस्थान की सूक्ष्म एवं गर्म जलवायु में खजूर की खेती Reviewed by asdfasdf on July 18, 2018 Rating: 5

    Bovine animals in Rajasthan राजस्थान में गौ-वंश - (राजस्थान में पशुधन)

    July 15, 2018

    राजस्थान में गौ-वंश

    राजस्थान के पशुपालन के क्षेत्र में गाय का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। राजस्थान की अर्थव्यवस्था में गौधन का महत्वपूर्ण स्थान है।  भारत की समस्त गौ वंश का लगभग 8 प्रतिशत भाग राजस्थान में पाया जाता है।
    गौ वंश संख्या में भारत में प्रथम स्थान उत्तरप्रदेश का है। राजस्थान राज्य का भारत में गौ-वंश संख्या में सातवाँ स्थान है। राज्य में कुल पशु-सम्पदा में गौ-वंश प्रतिशत 22.8 % है। संख्या में बकरी के पश्चात् गौवंश का स्थान दूसरा है। राजस्थान में अधिकतम गौवंश उदयपुर जिले में हैं जबकि न्यूनतम धौलपुर में हैं। गौशाला विकास कार्यक्रम की राज्य में शीर्ष संस्था राजस्थान गौशाला पिजंरापोल संघ, जयपुर है। बस्सी (जयपुर) में गौवंश संवर्धन फार्म स्थापित किया गया है। राज्य गौ सेवा आयोग, जयपुर की स्थापना 23 मार्च 1951 को की गई थी। गौ-संवर्धन के लिए दौसा व कोड़मदेसर (बीकानेर) में गौ सदन स्थापित किए गए हैं।
    • राज्य में पशुगणना 2012 के अनुसार कुल गौधन संख्या 1,33,24,462 या लगभग 133.2 लाख (13.32 मिलियन) है। 
    • अन्तर पशुगणना अवधि (2007-2012) के दौरान गौधन की संख्या में 9.94% की वृद्धि हुई है।  
    • पशुगणना 2012 में कुल विदेशी / संकर गौधन संख्या 2003 की पशुगणना की संख्या 4.6 लाख (0.46 million) से बढ़कर 17.3 लाख (1.73 million) हो गई है। 
    • पशुगणना 2012 में कुल देशी गौधन संख्या 2003 की पशुगणना की संख्या 103.9 लाख (10.39 million) से बढ़कर 115.8 लाख (11.58 million) हो गई है। 
    • विदेशी / संकर और देशी गौधन की संख्या में प्रतिशत परिवर्तन ''अन्तर जनगणना अवधि'' (2007-2012) के दौरान क्रमश: 112.72% और 2.53% है। 
    मादा गौधन-
    • पशुगणना 2012 के अनुसार राज्य में मादा गौधन की कुल संख्या 100.6 लाख (10.06 million) है।
    • पशुगणना 2003 की मादा गौधन की संख्या 72.3 लाख की तुलना में यह बढ़ कर पशुगणना 2012 में 100.6 लाख हो गई है। पिछली पशुगणना की तुलना में यह वृद्धि 18.62% की हुई है।

    राजस्थान में जिलावार गौधन की संख्या- 

    2012 की पशुगणना में गौधन की संख्या में प्रथम तीन स्थान के जिले निम्नांकित हैं-  
    प्रथम           -         उदयपुर      कुल गौवंश में 7.30% का योगदान (कुल संख्या 9,72,182) 
    द्वितीय      -         बीकानेर      कुल गौवंश में 6.80% का योगदान (कुल संख्या 9,06,075) 
    तृतीय          -        जोधपुर       कुल गौवंश में 6.37% का योगदान  (कुल संख्या 8,48,343)

    इसकी निम्नलिखित नस्ले राजस्थान में पाई जाती है।

    1.    नागौरी (Nagauri)-

    • इसका उत्पत्ति क्षेत्र  ‘सुहालक' प्रदेश नागौर है। इस किस्म के बैल अधिकतर जोधपुर, बीकानेर, नागौर तथा नागौर से लगने वाले पड़ौसी जिलों में पाए जाते हैं। 
    • इस नस्ल की गायें कम दूध देती है। 
    • ये राजस्थान की कठोर जलवायु परिस्थितियों के लिए अनुकूलित होते हैं। 
    • इनका रंग आम तौर पर सफेद या हल्का भूरा होता है। कुछ मामलों में सिर, चेहरा और कंधे थोड़ा भूरे रंग के होते हैं। 
    • यह बैल एक घोड़े की तरह लंबा और संकीर्ण चेहरे के साथ सफेद, उदार, बहुत सतर्क और चुस्त जानवर होता है। ये बैल बड़े और शक्तिशाली होते हैं। 
    • ये बैल गहरी रेत में भारी बोझ को खींचने का काम करने में सक्षम होते हैं। इनके पैरों की हड्डियों में हल्की होने की प्रवृत्ति होती है, लेकिन पैर मजबूत होते हैं। इस विशेषता ने इस नस्ल को चपलता और गति में विशिष्टता प्रदान की है। इस तरह यह चाल में एक घोड़े की तरह बदल जाता है।
    • इस नस्ल में औसत ऊंचाई नर की 148 सेमी तथा मादा की 124 सेमी होती है।
    • नर की औसत लम्बाई 145 सेमी तथा मादा की 138 सेमी होती है।
    • नर का औसत वजन 363 किग्रा तथा मादा का 318 किग्रा होता है।
    • पहले प्रसव के समय इसकी आयु औसतन 47.37 महीने होती है। औसतन प्रति 15.16 माह पश्चात गर्भ धारण करती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 603 किलो होती है।
    • इसके दूध में वसा औसत 5.8 % होती है।




    2.    कांकरेज (Kankrej)-

    • यह गुजरात में बनासकांठा जिले के भौगोलिक क्षेत्र कंक तालुका के नाम से इसका नाम कांकरेज पड़ा है।
    • राजस्थान के दक्षिण-पश्चिमी भागों बाड़मेर, जोधपुर, सिरोही तथा जालौर जिलों में पाई जाती है।
    • इस नस्ल की गायें प्रतिदिन 5 से 10 लीटर दूध देती है। 
    • इस नस्ल के बैल भी अच्छे भार वाहक होते हैं। अतः ग्रामीण क्षेत्र में कृषि कार्यों का संचालन और सड़क परिवहन मुख्य रूप से इस नस्ल के बैलों द्वारा किया जाता है। दूध देने तथा कृषि व भारवहन कार्य में उपयोगी होने के कारण इस नस्ल के गौ-वंश को ‘द्वि-परियोजनीय नस्ल' कहते है। 
    • इसका रंग रजत-भूरा, लोह-भूरा या स्टील-भूरा होता हैं। 
    • यह गायों की सबसे भारी नस्लों में से एक है। 
    • इसमें मजबूत वीणा आकार के सींग मुड़े हुए मस्तक के बाहरी कोनों से निकलकर बाहर की ओर, फिर ऊपर व बाद में अंदर की ओर मुड़ते हैं तथा ये सींग काफी ऊंचाई तक चमड़ी के ढके रहते हैं। बड़े पेंडुलस व खुले कान होते हैं।

    कांकरेज की अनोखी 'सवाई चाल' -

    कांकरेज नस्ल की चाल अनोखी होती है। इसकी चाल सुकुमार (smooth) होती है, गति करते समय शरीर में शायद ही कोई हलचल होती है, चलते समय सिर काफी हद तक ऊँचा रखा जाता है, लम्बा डग भरा जाता है तथा गति करते समय आगे के खुर के पदचिन्ह पर पीछे का खुर रखा जाता है। इस चाल में पशु का पिछला पैर जमीन पर टिकने से पहले ही अगला पैर उठ जाता है। इस चाल को पशुपालकों द्वारा 'सवाई चाल' (1¼ Pace) कहा जाता है।
    • पहले प्रसव के समय इसकी आयु औसतन 47.3 महीने होती है। औसतन प्रति 15.06 माह पश्चात गर्भ धारण करती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 1738 किलो होती है।
    • इसके दूध में वसा 2.9 से 4.2 % तक होती है।
    • इस नस्ल में औसत ऊंचाई नर की 158 सेमी तथा मादा की 125 सेमी होती है।
    • नर की औसत लम्बाई 148 सेमी तथा मादा की 123 सेमी होती है।
    • नर का औसत वजन 525 किग्रा तथा मादा का 343 किग्रा होता है।

    3.    थारपारकर (Tharparkar or Malani) -

    • थारपारकर का नाम की उत्पत्ति थार रेगिस्तान से हुई है। 
    • इसका उत्पत्ति स्थल मालाणी (बाड़मेर) है। 
    • यह गायें अत्यधिक दूध के लिए प्रसिद्ध है, इसे स्थानीय भागों में ‘मालाणी नस्ल' के नाम से जाना जाता है। 
    • यह बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर में पाई जाती है। 
    • पशु सफेद या हल्के भूरे रंग के होते हैं। चेहरे व पीछे का भाग शरीर की तुलना में एक गहरे रंग का होता है। बैल की गर्दन में, कूबड़ पर और सामने व पीछे का चौथाई भाग गहरे रंग का होता है। 
    • इसके मध्यम दर्जे के सींग खम्भे के एकसमान सीधी रेखा में निकलकर धीरे-धीरे ऊपर जाकर अंदर की ओर मुड़ते हैं। नर में, सींग मोटे, छोटे होते हैं। 
    • पहले प्रसव के समय इसकी आयु औसतन 41.03 महीने होती है। औसतन प्रति 14.18 माह पश्चात गर्भ धारण करती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 1749 किलो होती है।
    • इसके दूध में वसा 4.72 से 4.9 % तक होती है।
    • इस नस्ल में औसत ऊंचाई नर की 133 सेमी तथा मादा की 130 सेमी होती है।
    • नर की औसत लम्बाई 142 सेमी तथा मादा की 132 सेमी होती है।
    • नर का औसत वजन 475 किग्रा तथा मादा का 295 किग्रा होता है।

    4.    राठी (Rathi)-

    • यह राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भागों में श्रीगंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर में पाई जाती है। 
    • इस नस्ल की गायें अत्यधिक दूध के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु इस नस्ल के बैलों में भार वहन क्षमता कम होती है। अत्यधिक दूध के कारण इसे राजस्थान की कामधेनू भी कहते है।
    • राठी विशेष रूप से बीकानेर जिले के लुनकरनसर तहसील में केंद्रित हैं जिसे राठी क्षेत्र भी कहा जाता है। 
    • इसके नाम की उत्पत्ति को खानाबदोश जीवन जीने वाली राठ मुसलमान जाति से भी माना जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसा लगता है कि राठी नस्ल साहिवाल रक्त की पूर्वनिर्धारितता के साथ साहिवाल, लाल सिंधी, थारपाकर और धन्नी नस्लों के मिश्रण से उत्पन्न हुई हैं।
    • नोहर (हनुमानगढ़) में राठी के लिए गोवंश परियोजना केन्द्र व फर्टिलिटी की स्थापना।
    •  आमतौर पर इन जानवरों का रंग शरीर पर सफेद धब्बों के साथ भूरा होता हैं, लेकिन सफेद धब्बे के साथ पूरी तरह से भूरे रंग के, या काले रंग के पशु भी अक्सर मिल जाते है। शरीर के बाकी हिस्सों की तुलना में निचले शरीर के अंग आम तौर पर रंग में हल्के होते हैं। इनके सींग आकार में मध्यम से कम होते हैं।
    • यह गाय औसतन 114.92 सेमी ऊँची तथा 131.33 सेमी लम्बी होती है। इसका औसत वजन 295 किग्रा होता है।
    • पहले प्रसव के समय इसकी आयु औसतन 46.4 महीने होती है। औसतन प्रति 17.07 माह पश्चात गर्भ धारण करती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 1560 किलो होती है।
    • इसके दूध में वसा 3.7 से 4 % तक होती है।

    5.    गिर (Gir) –

    • इसकी उत्पत्ति गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र विशेष रूप से गिर वन के आसपास के क्षेत्र से हुई है।
    • यह पशु दक्षिणी-पूर्वी भाग (अजमेर, चित्तौड़गढ़, बूंदी, कोटा आदि जिलों) में सर्वाधिक पाए जाते हैं।
    • इन्हें भोदाली, देसन, गुजराती, काठियावाड़ी, सॉर्थी और सूरती आदि नामों से भी जाना जाता हैं। इस नस्ल की गाय को राजस्थान में रेंडा एवं अजमेर में अजमेरा भी कहते हैं। यह भी द्विपरियोजनीय नस्ल है।
    • गिर गाएं दूध की अच्छी उत्पादक होती हैं।
    • गिर बैल सभी प्रकार की मिट्टी में भारी भार खींच सकता है, चाहे वह रेतीली, काली या चट्टानी मृदा हो।
    • अधिकांश गिर गाएं शुद्ध लाल रंग की होती है, हालांकि कुछ लाल धब्बेदार भी होती हैं।
    • इनके सींग असाधारण घुमावदार होते हैं, जो अर्द्ध चंद्रमा जैसे होते हैं। अनूठे ढंग से मुड़े हुए गोल सींग होते हैं।
    • गिर एक विश्व प्रसिद्ध नस्ल है जो तनाव की स्थिति में अपनी सहिष्णुता (tolerance) के लिए जानी जाती है।
    • इसे ब्राजील, यूएसए, वेनेज़ुएला और मेक्सिको द्वारा आयात भी किया गया है, और वहां इसका प्रजनन भी करवाया गया है।
    • इसमें कम खुराक में अधिक दूध देने की क्षमता होती है और यह विभिन्न उष्णकटिबंधीय बीमारियों से प्रतिरोधी भी होती है।
    • इसके बछड़ों को 8 से 12 महीने तक थन चूसने दिए जाते है।
    • दूध देने वाली गायों को आमतौर पर गांव में ही रखा जाता है, जबकि सूखी गाय और युवा बछड़ों को चराई के लिए भेजा जाता है।
    • पहले प्रसव के समय इसकी आयु औसतन 46.08 महीने होती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 2110 किलो होती है।
    • इसके दूध में वसा 4.6 % होती है।
    • गिर नस्ल में औसत ऊंचाई नर की 159.84 सेमी तथा मादा की 130.79 सेमी होती है।
    • नर की औसत लम्बाई 137.51 सेमी तथा मादा की 131.4 सेमी होती है।
    • नर का औसत वजन 544 किग्रा तथा मादा का 310 किग्रा होता है।

    6. मेवाती -

    • यह अलवर, भरतपुर में पाई जाती है। इसका दूसरा नाम कोसी, मेहावती व काठी भी है। 
    • ये मेवाती पशु शक्तिशाली किन्तु शांत व विनम्र किस्म के होते हैं तथा भारी जुताई, गाडी खींचने, गहरे कुओं से पानी निकालने के लिए उपयोगी होते हैं। यह भी द्विपरियोजनीय नस्ल है।
    • मेवाती के मवेशी सफेद होते हैं, जिनमें आमतौर पर गर्दन, कंधे आदि लगभग चौथाई भाग में गहरे रंग की छाया होती है। 
    • इनका चेहरा लंबा, संकड़ा और सीधा होता है लेकिन कभी-कभी माथा उभरा हुआ भी होता है। 
    • इन जानवरों के सींग बाहर की तरफ, ऊपर की ओर, अंदर की ओर घुमाव लिए होते हैं।
    • इस नस्ल में औसत ऊंचाई नर की 138.9 सेमी तथा मादा की 125.4 सेमी होती है।
    • नर की औसत लम्बाई 117.69 सेमी तथा मादा की 114.8 सेमी होती है।
    • नर का औसत वजन 385 किग्रा तथा मादा का 325 किग्रा होता है।
    • पहले प्रसव के समय इसकी आयु 45 से 54 महीने होती है। यह प्रति 12 से 18 माह पश्चात गर्भ धारण करती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 958 किलो होती है।

    7. साहीवाल गाय - 

    • यह नस्ल गंगानगर में पाई जाती है।  
    • यह ज़ेबू मवेशियों की सबसे अच्छी डेयरी नस्लों में से एक है।  
    • यह नस्ल पाकिस्तान के पंजाब के मोंटगोमेरी जिले के साहिवाल क्षेत्र के कारण इसका यह नाम पड़ा है। 
    • इसका रंग भूरा लाल होता है और इसके रंगों के शेड महोगनी लाल भूरे से अधिक भूरे लाल तक बदलता है। 
    • इसके बैल के शरीर के अंत भागों का रंग शेष शरीर से गहरा होता है। इन गायों का सिर चौड़ा, सींग छोटी और मोटी, तथा माथा मझोला होता है।
    • इसके सींग ठूंठ जैसे (स्टम्पी) व छोटे से माध्यम आकार के होते हैं, जो पहले बाहर की ओर, फिर ऊपर की ओर जाते है व अंत में अन्दर की ओर मुड़ते है। 
    • इस नस्ल की दृश्य विशेषता लाल रंग, छोटे सींग एवं ढीली त्वचा हैं।
    • इस नस्ल में औसत ऊंचाई नर की 170 सेमी तथा मादा की 124 सेमी होती है।
    • नर की औसत लम्बाई 150 सेमी तथा मादा की 131 सेमी होती है।
    • नर का औसत वजन 540 किग्रा तथा मादा का 327 किग्रा होता है।
    • पहले प्रसव के समय इसकी औसत आयु 41.7 महीने होती है। यह औसतन प्रति 15.6 माह पश्चात गर्भ धारण करती है।
    • इसमें प्रति स्तन्यस्त्रवण सत्र में दूध उपज औसतन 2325 किलो होती है।

    8. मालवी-

    • इसका मूलस्थान मध्यप्रदेश का मालवा क्षेत्र (रतलाम, मंदसौर, उज्जैन ) है।राजस्थान में ये मध्यप्रदेश के मालवा से सटे क्षेत्र में पाए जाते हैं।
    • इसे महादेवपुरी, मंथानी भी कहते हैं। 
    • इस नस्ल की टाँगे छोटी व मजबूत होती है तथा छोटा कद व गठीला बदन होने के कारण यह पहाड़ी क्षेत्रों में उबड़ खाबड़ भूमि पर आसानी से चल सकती है। इसलिए मालवी नस्ल के बैल भारवाहक के रूप में प्रसिद्ध है।  
    • लेकिन इस नस्ल की गाएं दूध कम देती है। 
    • इनका रंग सफ़ेद या सफ़ेद भूरा होता है और नर का रंग अपेक्षाकृत गहरा होता है। नर में गर्दन, कूल्हे , कंधे व क्वार्टर लगभग काले होते हैं। गाय और बैल उम्र बढ़ने पर लगभग शुद्ध श्वेत रंग के हो जाते हैं। सफ़ेद रंग का मजबूत अच्छा शरीर व वीणा के आकार के सींग इस जानवर की दृश्य विशेषता है।

    9. हरियाणवी - 

    • इनका मूल स्थान हरियाणा है। यह रोहतक, हिसार, गुडगाँव, सोनीपत, जिंद, झज्जर (हरियाणा) के अलावा राजस्थान में श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़ चुरू, सीकर, टोंक, जयपुर में पाई जाती है। 
    • इसका उद्गम हिसार व हंसी नामक दो हरियाणवी नस्लों से हुआ है अतः इसे हंसी भी कहा जाता है। 
    • इस नस्ल के लिए कुम्हेर (भरतपुर) में वृषभ पालन केन्द्र स्थापित है।  
    • हरियाणवी उत्तर भारत की एक प्रमुख द्विपरियोजनीय नस्ल है जो व्यापक रूप से इंडो गंगा मैदानी इलाकों में फैली हुई है। 
    • इसका पालन मुख्य रूप से बैल उत्पादन के लिए किया जाता है किन्तु ये गाएं काफी अच्छा दूध भी देती है।
    • ये बैल शक्तिशाली होते हैं व सडक़ परिवहन तथा भारी हल चलाने के काम में उपयोगी होते है। 
    • हरयाणवी नस्ल के जानवर उच्च तापमान सहन कर सकते हैं। इस नस्ल के बैल ऊँचे कूबड़ के कारण अत्यंत आकर्षक होते हैं।
    • ये बैल पथरीले खेतों या भीषण गर्मी में कई घंटों तक लगातार काम कर सकते हैं और अत्यंत गर्मी में भी भारी वजन ढो कर प्रति घंटे 25 किलोमीटर चल सकते है।
    • इन जानवरों में लम्बा-संकरा चेहरा और छोटे सींग पाए जाते है।
    • ये जानवर रंग में सफेद या हल्के भूरे रंग के होते हैं। बैल सामने और पीछे के भाग में अपेक्षाकृत काले या गहरे भूरे रंग के होते हैं। 
    • ये गाएं सौम्य स्वभाव की होती हैं। ये प्रतिदिन 5-8 लीटर दूध देती हैं। कड़ी मेहनत का स्वभाव, उच्च दूध उत्पादन और किसी भी मौसम को सहने की क्षमता के कारण हरियाणा नस्ल विश्व के कई देशों में फैली है।
    राजस्थान में विदेशी नस्ल की गायें-
    (1) रेड डन - इसका मूल स्थान डेनमार्क है।  यह 20 से 25 लीटर दूध देती है।
    (2) हॉलिस्टन – इसका मूलस्थान हॉलेंड व अमेरिका है। यह सर्वाधिक दूध देने वाली नस्ल है। इसके दूध में वसा की मात्रा 5 प्रतिशत होती है। यह राज्य के मध्य व पूर्वी राजस्थान में पाली जाती है।
    (3) जर्सी – इसका मूलस्थान अमेरिका है । ये बहुत कम उम्र में दूध देने लगती है। इसके दूध में वसा की मात्रा 4 प्रतिशत होती है। यह राज्य के मध्य व पूर्वी राजस्थान में पाली जाती है।

    गायों में होने वाले प्रमुख रोग - 

    गाय में फाइलेरिऐसीस, थिलेरिएसिस, एनाप्लाज़्मोसिस, फैसिलियोसिस, बेबीसीयोसिस, व खुरपका, मुंहपका, रिंदरपेस्ट नामक रोग पाए जाते है।
        राजस्थान के प्रमुख गौवंश नस्ल केन्द्र-
        1. गिर - डग, झालावाड़
        2. जर्सी गाय - बस्सी, जयपुर
        3. मेवाती - अलवर
        4. थारपारकर - सूरतगढ़, गंगानगर
        5. हरियाणवी - कुम्हेर, भरतपुर
        6. राठी - नोहर, हनुमानगढ़
        7. नागौरी - नागौर
        8. थारपारकर - चांदन, जैसलमेर

        9. कांकरेज - चौहटन (बाड़मेर)


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        Fabulous Koftgiri art of Rajasthan - राजस्थान की बेहतरीन कोफ़्तगिरी कला

        July 08, 2018

        Koftgiri art of Rajasthan - राजस्थान की कोफ्तगिरी कला

        कोफ़्तगिरी एक पारंपरिक शिल्प है जिसका अभ्यास वर्षों से मेवाड़ के विभिन्न जिलों में किया जाता रहा है। वर्तमान यह शिल्प जयपुर, अलवर और उदयपुर में दृष्टिगोचर होता है। जयपुर में, आयात-निर्यात बाजार में कोफ़्तगिरी शिल्प के आर्टिकल्स देखे जा सकते हैं जबकि, उदयपुर में इसके क्लस्टर पाए जाते हैं। अलवर के तलवारसाज लोग इस कला से जुड़े हुए हैं। उदयपुर के सिकलीगर लोग इस कला में महारत रखते हैं। कोफ़्तगिरी एक मौसमी शिल्प नहीं है, बल्कि एक बार किसी कलाकार को जब इसमें उचित गुणवत्ता हासिल हो जाती है तो उसके कोफ़्तगिरी के उत्पाद की अत्यधिक मांग हो जाती है, जो वर्षभर बनी रहती है।



        कोफ़्त गिरी हथियारों को अलंकृत करने की कला है, जो भारत में मुगलों के प्रभाव के कारण उभरी थी। इसमें जडाव (इनले) और ओवरले दोनों प्रकार की कला का कार्य होता है। फौलाद अथवा लोहे पर सोने की सूक्ष्म कसीदाकारी कोफ्त गिरी कहलाती है। कोफ़्तगिरी शब्द लोहे को "पीट-पीट कर" उस पर किसी कलात्मक पैटर्न को उभारने की क्रिया को कहते हैं। यह एक ओवरले कला है जिसमे विशेष उपकरण द्वारा सोने / चांदी के तार को दबाकर जड़ा जाता है और फिर इसे गरम किया जाता है। यह किसी एक गहरे रंग की धातु पर हलके रंग की धातु को जड़ने की कला है, जिसमें लोह धातु की सतह को सोने या चांदी के पत्ते का प्रयोग करके गहनों जैसी एक सजावटी भव्यता प्रदान की जाती है। 
        • इस कलाशिल्प के लिए कोफ़्त शब्द प्रयुक्त किया गया है,
        • इसके कलाकार को कोफ़्तगर कहा जाता है और 
        • इस व्यवसाय को कोफ्तगिरी के नाम से जाना जाता है।

        कोफ़्तगिरि रूपांकन में सोने और चांदी के तारों की कई प्रकार की पारंपरिक रेखाएं और वक्र होती हैं। कॉफ्टगिरि की विशेषता है कि इसमें पूरे अलंकृत डिजाइन को मुख्य रूप से तार द्वारा निर्मित किया जाता है। इसकी मुख्य सामग्री अजमेर और भीलवाड़ा से प्राप्त की जाती है और फिर आवश्यक उपकरणों का उपयोग करके वांछित अलंकृत रूपान्कनों को मेंन्युअल रूप से बनाया जाता है। चूंकि इस शिल्प में गहन श्रम लगता है, इसके उत्पादन में महिलाएं और पुरुष दोनों ही कार्य करते हैं। पुरुष भारी मैनुअल श्रम करते हैं जबकि महिलाएं सामान की प्रारंभिक तैयारी, अंतिम फिनिश और पैकेजिंग का कार्य करती हैं।

        • मुख्य रूप से कोफ्त गिरी शिल्प का इस्तेमाल ढाल, तलवारों व खंजर और अन्य उपयोगी सामग्री जैसे डिब्बे, बक्से, भोजन काटने और खाने के कटलरी सामान, शिकार चाकू, छुरी इत्यादि के निर्माण में किया जाता है।
        • इसमें कटार के विभिन्न जानवरों के सिर के आकार में सुंदर हैंडल बनाए जाते हैं। 
        • हथियारों के कवर पर शिकार के दृश्य उत्कीर्ण किये जाते हैं। 
        • पुराने कोफ्त्गीर कारीगरों में अरबी शब्दों को उत्कीर्ण करने में बहुत बढ़िया कौशल हासिल था। अरबी अक्षरों की वक्रता में परिशुद्धता की आवश्यकता होती है, वक्र में भिन्नता के कारण संदेश का अर्थ बदल सकता है।
        लगभग सौ वर्ष उससे भी पहले कोफ़्त गिरि का व्यापक रूप से उपयोग गाड़िया-लोहार द्वारा अपने राजपूत ग्राहकों के लिए पारंपरिक हथियारों और कवच के निर्माण में किया जाता था। ये परंपरा अब अप्रचलित हो गई है।

        Koftgiri is traditional craft as it is practiced in Mewar district since decades. This craft can be seen in Jaipur and Udaipur nowadays. In Jaipur, Koftgiri can be seen in the import-export market. Whereas, Udaipur, is where clusters are found where Koftgiri is practiced. Koftgiri is not a seasonal craft. Once a proper quality is achieved the product is highly sought after.


        Koftgiri is a type of decoration originating in India with the Mughals as a means to decorate arms and weaponry. It can be both an inlay and overlay art. The word Koftgiri refers to the action of “beating” the pattern into the iron, an art of inlaying light metal on a dark one to provide a surface with an ornamental appearance with elaborate and lavish chiselling gold or silver leaf. For this craft the term Koft is applied, and the work-person is known as a Koftgar (really a glider) and the trade as Koftgari.



        Koftgiri motifs are traditional with lots of lines and curves which is possible with the handling of Gold and Silver wire. The specialty of Koftgiris that the whole design is produced mainly by wire. Main materials are sourced from karkhanasat Ajmer and Bhilwara, and then manually created into desired forms using the essential tools. As this craft is labour intensive both women and men are involved in the process. While the women do the initial preparation of the material, final finish and packaging of the objects, the men do most of the heavy manual labour.


        Primarily Koftgiri craft was used in creating handles of swords and daggers and articles of utility such as boxes, cutlery, hunting knives, etc. Until a hundred years or so ago, Koftgiri, was widely used by the Gadi-Lohars, the traditional armourers of Rajasthan, to create a range of weaponry and armour for the use of their Rajput clientele, the tradition has become obsolete now.
        Fabulous Koftgiri art of Rajasthan - राजस्थान की बेहतरीन कोफ़्तगिरी कला Fabulous Koftgiri art of Rajasthan - राजस्थान की बेहतरीन कोफ़्तगिरी कला Reviewed by asdfasdf on July 08, 2018 Rating: 5
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